दर्जी समाज के आराध्य देव राजऋषि संत पीपाजी और उनके राजपूत अनुयायियों का इतिहास

 पीपा राजपूत समाज का इतिहास जानने से पहले पीपा राजपूत समाज के गुरु , क्षत्रिय राजपूत समाज के प्रथम सन्त शिरोमणि श्री पीपा जी महाराज (राजा राव प्रताप सिंह ) के बारे में जानकारी:

राजा राव प्रताप सिंह जी चौहान

राजा राव प्रताप सिंह जी का जन्म गढ़ गागरोण (जल दुर्ग) , झालावाड़ के महाराजा कड़वा राव और महारानी सफला देवी के परिवार में चैत्र शुक्ल पूर्णिमा वि. संवत 1380 तदनुसार 12 अप्रैल 1323 में हुआ था
ये अग्निवंशी खींची चौहान थे
ये बचपन मे ही एक शूरवीर यौद्धा थे
राव प्रताप सिंह जी मां जालपा देवी के उपासक थे
 वि. संवत 1400 में राव प्रताप सिंह जी का राज्याभिषेक हुआ था
राजा प्रताप सिंह जी अच्छे राजनीतिकार के साथ विभिन्न विधाओं के ज्ञाता थे
इतिहासकार डॉ गौरीशंकर हीराचन्द ओझा और मुहणोत नैणसी ने राव प्रताप सिंह का बखाण किआ हैं...

मां जालपा देवी स्वयं राव प्रताप सिंह जी के साथ युद्ध लड़ती थी


राव प्रताप सिंह जी ने कई युद्ध किए जिनमे से 2 प्रमुख युद्ध हैं

1. गागरोण का युद्ध - गागरोण दुर्ग पर मालवा के हमले के समय यवनों की सेना ने हमला किया | मलिक सरावतदार व फिरोज खां इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे | जवाब में राजा प्रताप सिंह जी चौहान की शेर के दहाड़ वाली सेना ने भीषण हमला कर दिया |
यवन सेना को जान बचाकर भागना पड़ा |

2. टोडाराय का युद्ध - इस युद्ध मे फिरोजशाह तुगलक ने टोडा पर आक्रमण किया लल्लन पठान के सामने राजा डूंगरसिंह को सेना को हथियार डालने का आदेश देना पड़ा इसका पता राजा डूंगरसिंह जी के ससुर चित्तौड़गढ़ के राणा रायमल सिंह सिसोदिया को पड़ा | उन्होंने एक बैठक बुलाई वहां पर एक गागरोण गढ़ का सेनापति भी मौजूद था उसने राव प्रताप सिंह के बारे में बताया तो राणा रायमल सिंह जी ने मदद हेतु गढ़ गागरोण न्यौता भेजा न्यौता मिलने पर राव प्रताप सिंह अपनी सेना के साथ लल्लन पठान की सेना पर टूट पड़े जिसमे लल्लन पठान मारा गया ... राजपाट वापस डूंगरसिंह को सौंप दिया

इस युद्ध मे राव प्रताप सिंह जी के शौर्य और रणनीति को देखकर राजा डूंगरसिंह जी की सुपुत्री स्मृति बाई सोलंकी ( माता सीता सहचरी ) जी ने राव प्रताप जी को अंतर्मन पति मान लिया उनके हठ को देखकर  नाना राणा रायमल सिंह ने समझाया कि प्रताप सिंह जी की पहले से ही 11 रानियां हैं... लेकिन उनकी जिद्द के सामने एक न चली.. आखिरकार राणा रायमल सिसोदिया को  गागरोण गढ़ शादी का प्रस्ताव भेजना पड़ा  पहले तो प्रताप सिंह तैयार नही हुए बाद में कड़वा राव जी ने समझाया कि कोई संतान नही है.. इस पर प्रताप सिंह जी ने शादी कर ली
स्मृति बाई ने जब यह सुना कि प्रताप सिंह जी कुशल यौद्धा के साथ साथ एक योगी भी है..  तो वे प्रसन्न हुई
राव प्रताप सिंह जी के मन मे एक चिंता खाए जा रही थी... कि विदेशी आक्रांता यहां के राजाओं को हिन्दू धर्म विरोधी मांस और मदिरा का सेवन करने के लिए बहका रहे थे और राजा नशे के मद में चूर होकर आपस मे ही एक दूसरे का खून बहा रहे थे एक दिन प्रताप सिंह जी शिकार पर थे तो उनकी तलवार से एक गर्भवती हिरणी आधी कट गई इसको देखकर राव प्रताप सिंह जी के अंदर करुणा का भाव जागृत हो गया

एक दिन माँ भवानी ने उनके स्वप्न में आकर काशी में रामानन्द जी को गुरु बनाने को कहा
 मां भवानी की आज्ञा मानकर प्रताप सिंह जी राजषी भेष में ही  काशी रवाना हो गए...
वहां रामानंद जी से अपना शिष्य के रूप में स्वीकारने का आग्रह किया लेकिन राजषी भेष में देखकर रामानंद जी ने वापस लौट जाने को कह दिया लेकिन राव प्रताप सिंह अपनी जिद्द पर अड़ गए.. तो रामानंद जी ने राव प्रताप सिंह जी की परीक्षा लेने के लिए कह दिया कि जल में कूद जाओ.. प्रताप सिंह जल में कूदने वाले ही थे इससे पहले रामानंद जी ने हाथ पकड़कर कहा कि रुक जाओ..
तुम वापस निश्चित होकर गागरोण लौट जाओ.. मैं वहां अपने शिष्यों के साथ आऊंगा तुम्हे अपना शिष्य बनाऊंगा..
गुरु की आज्ञा मानकर राव प्रताप सिंह जी वापस लौट आये.. वे वैराग्य की जिंदगी बिताने लगे... राजकाज में उनका मन नही लगता था.
कुछ समय बाद रामानंद जी अपने शिष्यों के साथ गागरोण आये.. और विशाल सभा हुई
हर दिवस पौराणिक कथाओं का और प्रवचनों को सुनने के लिए लोगों की भीड़ होने लगी..
गुरु रामानंद जी ने राव प्रताप सिंह को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया...
वि. संवत 1414 , आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को राव प्रताप सिंह जी ने राजपाट त्याग कर अपने भतीजे कल्याण राव का राज्याभिषेक किया..

गुरु की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर राव प्रताप सिंह जी वैराग्य का जीवन जीने के लिए जंगल की ओर निकल पड़े...
सन्त पीपा जी के साथ उनकी 12 रानियों में से सबसे छोटी रानी स्मृति बाई सोलंकी ही चली..
जिनका नाम माता सीता सहचरी जी हुआ...
गुरु रामानंद जी ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि

तूं राम नाम के रस को "पी" औऱ अन्य लोगों को भी रस "पा" .....
 इसलिए लोगों ने सन्त पीपा नाम से पुकारना शुरू किया |


पीपा राजपूत समाज का इतिहास....

क्षत्रियों की आपस मे मारकाट ने राव प्रताप सिंह को व्यथित कर रखा था..  अगर ऐसे ही क्षत्रिय एक दूसरे का रक्त रहे तो क्षत्रियों  की संख्या कम हो जाएगी..  जिससे हिन्दू धर्म नष्ट हो जाएगा.. चारो तरफ अधर्म फैल जाएगा।  
उसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए.. सन्त पीपा जी ने क्षत्रियों को दीक्षा देना प्रारंभ किया... उनका उद्देश्य रहा कि क्षत्रिय धर्म की रक्षा हो...


सन्त पीपा जी के इस उद्देश्य के बारे में कई राजाओं ने सुना...

हिन्दू धर्म और क्षत्रिय धर्म की रक्षा के लिए कई राजा और राजकुमार भी राजपाट त्याग कर .. या दान कर अहिंसा के पथ पर चले....

ऐतिहासिक ज्ञान के आधार पर यह भी जिक्र हैं कि सन्त पीपा जी को कभी किसी को शिष्य नही बनाया और न ही कोई पन्थ या पीठ की स्थापना की...

सन्त पीपा जी को अपना गुरु के रूप में 51 राजाओ और राजकुमारों ने स्वीकार किया..
1. बेरिसाल सोलंकी
2. दामोदर दास परमार
3. गोवर्धन सिंह पंवार
4. सोमपाल परिहार
5. खेमराज चौहान
6. भीमराज गोयल
7. शम्भूदास डाबी
8. इन्द्रराज राठौड़ ( राखेचा )
9.  रणमल चौहान
10. जयदास खींची
11. पृथ्वीराज तंवर
12. सुयोधन बडगुजर
13. ईश्वर दास दहिया
14. गोलियो राव
15. बृजभान सिसोदिया
16. राजसिंह भाटी
17. हरदत्त टाक
18. हरिदास कच्छवाह
19. अभयराज यादव
20. राठौड़ इडरिया हरबद
21. मकवाना रामदास वीरभान
22. शेखावत करभान
23. गहलोत आनंददेव
24. चावड़ा वरजोग
25. संकलेचा मानकदेव
26. बिजलदेव वारण
27. रणमल परिहार
28. अभयराज सांखला
29. झाला भगवान दास
30. गोहिल दूदा
31. गोकुल राय देवड़ा
32. गौड़ गजेन्द्र
33. चुंडावत मंडलीक
34. हितपाल बाघेला
35. गहलोत अमृत कनेरिया
36. भाटी मोहन सिंह
37. दलवीर राठौड़
38. ( इंदा ) प्रतिहार मोहन सिंह
39. प्रभात सिंह सिंधु राठौड़
40. सुरसिंह (सूर्यमल्ल सोलंकी)
41. उम्मेदसिंह तंवर
42. हेमसिंह कच्छवाहा
43. गंगदेव गोहिल
44. दुल्हसिंह टांक
45. गोपालराव परिहार
46. मूलसिंह गहलोत
47. पन्नेसिंह राठौड़ (राखेचा)
48. अमराव मकवाना
49. मुलराव चावड़ा
50. मूलराज भाटी
51. पन्नेसिंह डाबी

इन सब क्षत्रियों ने तो हिंसा और मास मदिरा का परित्याग तो कर दिया... लेकिन इनके सामने एक समस्या आई... कि वे जीवनयापन के लिए क्या कार्य करे ?
तब सन्त पीपा जी महाराज ने खेती का कार्य सौंपा.. जो कि एक अहिसंक कार्य था..
लेकिन एक और समस्या खड़ी हों गयीं कि कुछ लोगों के राजपाट दान या बंजर भूमि के कारण खेती भी सब लोग नही कर पा रहे थे....
तब सन्त पीपा जी ने एक किसान को सिलाई का कार्य करते देखा... इसमे किसी भी प्रकार की कोई हिंसा नही दिखी... सिलाई का कार्य सौंप दिया...

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पीपा राजपूत समुदाय का मुख्य कार्य खेती और सिलाई था ...

मास मदिरा से दूर इस समाज को अहिंसक राजपूत , शुद्ध रक्त राजपूत (क्षत्रिय) , पीपा राजपूत कहा जाने लगा....

सन्त पीपा जी ने हमेशा मास मदिरा और जाति प्रथा का विरोध किया..
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वे वर्ण व्यवस्था को प्राथमिकता देते थे... क्षत्रिय , ब्राह्मण , शुद्र , वैश्य ....

यह समाज मुख्यतः राजस्थान , गुजरात , मध्यप्रदेश ,  उ.प्र, हरियाणा , महाराष्ट्र  में फैला हुआ है..

आज भी चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को गढ़ गागरोण में भव्य मैला लगता है

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