प्राचीन भारत में वस्त्रों का चलन

        भारतवर्ष के उत्तरी विभाग शीतप्राय और दक्षिणी गर्म होने के कारण अपनी अपनी आवश्यकता के अनुसार वस्त्र भिन्न भिन्न प्रकार के पहने जाते थे। थोड़े शीतवाले प्रदेशों में रहने वाले साधारणतया बिना सिये हुए वस्त्र का उपयोग करते थे और शीत प्रदेश वाले सिये हुओं का भी। दक्षिण में अब तक बहुधा मामूली वस्त्र बिना सिये हुए ही काम में लाए जाते थे। इन बातों को देखकर कोई कोई यह मानने लग गए हैं कि भारत के लोग मुसलमानों के भारत आने के समय से सिले हुए वस्त्र पहनना सीखे, परंतु यह एक भ्रम ही है। वैदिक काल से ही यहां कपड़ा बुनने की कला उन्नत दशा में थी और यह कार्य विशेषकर स्त्रियां ही करती थीं। 

     वस्त्र वुननेवालों के नाम 'वयित्री" 'बाय' और 'सिरी" थे। वस्त्र बुनने की ताने से संबंध रखनेवाली लकड़ी को 'मयूख" (मेख ?) और वाने का धागा फेंकनेवाले औज़ार अर्थात् ढरकी को 'वेम' ( बेमन्) कहते थे। यही नाम राजपूताने में अबतक प्रचलित हैं। वस्त्र बहुधा रंगे जाते थे और रंगनेवाली स्त्रियां "रजयित्री" कहलाती थी। सुई का काम भी उस समय में होता था। वेदों की संहिता तथा ब्राह्मण ग्रंथों में सुई का नाम 'सूची' और 'बेशी" मिलता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में सुई तीन प्रकार की अर्थात् लोहे, चांदी और सोने की होना बताया गया है। कैंची को 'भुरिज" कहते थे। 'सुश्रुतसंहिता' में "सीव्येत् सूक्ष्मेण सूत्रेण" ( बारीक डोरे से सीना) लिखा मिलता है। रेशमी चुगे को 'ताप्ये" और ऊनी कुरते को 'शामूल" कहते थे। 'द्रापि" भी एक प्रकार का सिया हुश्रा वस्त्र था, जिसके विषय में सायण (किसी लेखक का नाम) लिखता है कि वह युद्ध के समय पहना जाता था। सिर पर बांधने के वस्त्र को उष्णीय ( पगड़ी या साफ़ा) कहते थे। स्त्रियों का मामूली वस्त्र अंतरीय अर्थात् साड़ी जो आधी पहनी और आधी ओढ़ी जाती थी और बाहर जाने के समय उसपर उत्तरीय ( दुपट्टा) रहता था। स्त्रियां नाचने के समय लहंगे जैसा ज़री के काम का वस्त्र पहनती थी, जिसका नाम 'पेशस्" था। शायद आजकल का पिशवाज़ शब्द इसी का अपभ्रंश हो। ऐसे बस्त्रों को बनाने वाली स्त्रियां पेशस्करी" कहलाती थीं। स्त्रियों के पहनने के लहंगे जैसे वस्त्र को, जो नाडे से कसा जाता था, 'नीवि" कहते थे। विवाह के समय जामे जैसा वस्त्र जो वर पहनता था जिसको "वाधूय" कहते थे। यह प्रथा आज तक भी कुछ रूपांतर के साथ राजपूताने की बहुतसी जातियों में प्रचलित है। वस्त्र के नीचे लगनेवाली झालरी या गोट का नाम 'तूष" था। "ये सब वैदिक काल के वस्त्रों आदि के नाम हैं।" सूती, ऊनी और रेशमी वस्त्रों के अतिरिक्त वृक्ष और पौधों के रेशों के वस्त्र भी बनते थे, जो 'बल्कल' कहलाते थे। महाभारत, रामायण आदि में इनका वर्णन मिलता है। ये वस्त्र बहुधा तपस्वी तथा उनकी स्त्रियां पहना करती थीं। सीता ने भी वनवास के समय वल्कल ही धारण किये थे। समय के साथ पोशाक में परिवर्तन होता ही रहता है। 

       मथुरा के कंकाली टीले से मिली हुई वि० सं० की पहली शताब्दी के आसपास के लेखवाली शिला पर एक रानी और उसकी दासियों के चित्र खुदे हुए हैं। रानी जहगा पहने और ऊपर उत्तरीय धारण किये हुए है (स्मिथ, मधुरा ऍसिबिटीज, प्लेट १४ ) । उसी पुस्तक में एक जैनमूर्ति के नीचे दो आवक और तीन आविकाओं की खड़ी मूर्तिया है। ये तीनों स्त्रियां लहंगे पहने हुई हैं (प्लेट ८२)। उसी पुस्तक में हाथ में डंडा लिए बैल पर बैठे एक पुरुष का चित्र है, जो कमर तक कुरता या अंगरखा पहने हुए है (प्लेट १०२)। ये उदाहरण राजपूताने के ही समझने चाहियें। अजंता की गुफा में बच्चे को गोद में लिये हुए एक स्त्री का सुन्दर चित्र बना है, जिसमें वह श्री कमर से नीचे तक आधी बांहवाली सुन्दर छींट की अगियां पहने हुए है (स्मिथ ऑक्सफर्ड हिस्टरी ऑफ़ इंडिया, पृष्ठ संख्या १५९ पर दिया हुआ चित्र )। इससे स्पष्ट है कि दक्षिण में भी सिये हुए वस्त्र पहने जाते थे।

      पाटलीपुत्र के राजा उदयन की मूर्ति पर मिरज़ई है और उसकी कंठी पर बुनगट के काम का हाशिया है। गुप्तों के सिक्कों पर राजा सिये हुए वस्त्र पहने दिखाई देता है।

     राजपूताने में पुरुषों की पुरानी मामूली पोशाक धोती, दुपट्टा और पगड़ी थी। शीतकाल में सिये हुए ऊनी वस्त्रों का उपयोग भी होता था। उत्सव और राजदरवारों के समय की पोशाक रेशमी ज़री के काम की भी होती थी । कृषिकार या साधारण स्थिति के लोग घुटनों या उससे नीचे तक की कच्छ या कच्छनी भी पहना करते थे, जिसके चिह्न अव तक कहीं कहाँ विद्यमान हैं। स्त्रियों की पोशाक विशेषतः साड़ी या नीचे लहंगा और ऊपर साड़ी होती थी। प्राचीन काल में स्त्रियों के स्तन या तो खुले रहते थे या उनपर कपड़े की पट्टी बांधी जाती थी, परन्तु राजपूताने की स्त्रियों में 'कंचुलिका' (कांचली ) पहनने का रिवाज भी पुराना है।

      राजपूताने के लोगों की वर्त्तमान पोशाक विशेषकर पगड़ी, अंगरखा धोती या पजामा है। बहुत से लोग पगड़ी के स्थान में साफा या टोपी भी काम में लाते हैं। कोई कोई अंग्रेज़ी ढंग से कोट, पतलून या ब्रीचीज़ और अंग्रेज़ी टोप भी धारण करते हैं। स्त्रियाँ की पोशाक प्रायः साड़ी, लहंगा और कांचली थी, परन्तु अब स्त्रियों में आधुनिकता का प्रभाव दिखाई देता है।


सन्दर्भ: Early History of Rajputana: History of Rajputana Vol-1 (Author: Gaurishankar Hirachand Ojha)